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सूखी बारिश

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आह! बारिश तू जब आसमान से गिर धरती पर पड़ती है तो देखने वाले के मन को कितना सुकून देती है क्या तुझे पता है ? छम-छम करतीं तेरी ये बूँदें मन में इक अजीब सी खनक पैदा करती है उस खनक को सुन देखो पेड़ों के पत्ते जैसे झूम उठे बरसती बूंदों से सूखी पड़ी धरा में जान भर आई  चहचहाते पंछी फड़फड़ाते अपने पर भिगोने लगे और प्यासा सा मन तेरी ओर देखकर पूछने लगा ‘बारिश, तू क्या कभी इतनी गीली हो पाएगी कि मेरे इस सूखे पड़े मन को भिगो सके?’

काला-सफ़ेद

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रंग तू कितना बेरंग है खुद का कुछ न तेरा रोशनी है तो तू है कुछ नहीं जब है अँधेरा | पर फिर भी सब कुछ तुझी से है नीला आसमान, हरे पेड़ या भूरी धरा काले सफ़ेद के क्या मायने हैं इंसान फिर भी इन्ही में है घिरा | सफ़ेद रंग से चाहत लगा बैठा इंसान काला रंग आँखों को न भाया आँखें काली सुंदर लगीं पर काली त्वचा से जी घबराया | फिर त्वचा के रंग पर घमंड हो गया सफ़ेद तो ऊँचा, काला नीचा हो गया बहुत कोशिश हुई इस फर्क को नाकारने की पर रंग में रंग घुलने से पहले, रंग से रंग छिप गया | चाहत है बस ये भेद मिटाने की रंग से नहीं, पहचान इंसान की हो काले के नीचे सफ़ेद, या सफ़ेद के नीचे काला इन सबसे ऊपर इंसानियत बैठी हो |

चाय-पानी और पहरेदार

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पगडंडी पर चल रही हूँ लक्ष्य है आसमान छूने का पर सीढ़ियों पर पहरा है पहरेदार है एक मुच्छड़ मुश्टंडा मैंने क़दम आगे बढ़ाए तो बोल पड़ा , ‘ पहले मुझे सौंपो सोने की सौ अशरफ़ियाँ , तब ही आगे बढ़ने दूँगा ’ गर्दन ऊँची कर मैंने नाक सिकोड़ी ग़ुस्सा बहुत आया पर उसे पेट में दबा बोली , ‘ महाशय , आगे जाने दो मुझे रोक कर मुझे कर दोगे देवों को रूष्ट ’ फिर भी पहरेदार न माना और थक कर मैं वापस मुड़   चली   । पर हार ना मानी मैंने रोज़ जाती उसके पास ‘ जाने किस दिन उसका दिल पिघल जाए ?’ पर मुच्छड़ जितना दीखता , उतना ही कठोर अपनी बात पर बिलकुल अडिग रहा   । पहरेदार का पसंदीदा   चाय-पानी , खाकर जिसे सोता वो खर्राटे मार कर पर फिर भी पहरा तोड़ कर , मैंने सीढ़ियाँ चढ़ने की न सोची क्योंकि मैं डरती थी.. डर मेरा था उचित , या था कोई धोखा यह मैंने सोच कर भी न सोचा क्योंकि लक्ष्य पर तो पहुँचना ही था   । तो   माँ   के   पुश्तैनी   ज़ेवरात   पिघला   कर अशरफ़ियाँ बनवा दीं एक दिन और मुँह लटकाए , अशरफ़ियों की पोटली छुपाए पहरेदार के पास फिर पहुँच गयी  .. मैंने

लालमय आसमान

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आज सवेरे उठते ही मन में ये ख्याल आया देखूं आज सूर्योदय होते हुए पहन पैर में चप्पल और आँखों पर चश्मा दृढ़   निश्चय कर , मैं चली छत की ओर | अभी अँधेरा छट चुका है पर सूर्य नहीं है क्षितिज पर पूरव दिशा में देख रही हूँ आसमान में है कुछ लालिमा चिड़िया की चहचहाहट भी है कुछ जो सूरज के आने का संदेश दे रही है | आह ! लाल रंग , तू कहाँ छिपा था ये पूछ पड़ा मेरा बागी मन रोज़ है रहता तू इस जहान में पर क्यों न देख पाई तुझे मैं आँखें बंद रह जाती थीं मेरी या आँखें खोलना ही न सीख पाई ? बढ़ रही है उस दिशा में आसमान की लाली ठहर जा , सब्र कर , आयेगा वो पल जब चीरता हुआ उस लाल छटा को , होगा सूर्योदय और बिखेर देगा वो लाल रंग सबपर जो अभी तक सिर्फ क्षितिज पर था तब लाल हो उठेगी ये सारी दुनिया और चारों तरफ उजाला होगा |

भाग मत

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एक समय की बात है छोटी सी एक गुड़िया थी चलना न आता उसको घुटनों के बल वो रेंगती थी  | फिर चलना सीखा उसने नन्हे-नन्हे कदम बढ़ाना सीखा पर थक कर गिर जाती चल के कुछ दूर उठना ,  फिर से चलना ,  फिर गिर जाना  | वक़्त बीता ,  कदम उसके हुए मज़बूत अब दौड़ने भी लगी थी वो गुड़िया और दौड़ना ऐसा कि थकती न थी मीलों भागती और रूकती न थी  | जंगल ,  पहाड़ ,  नदियां ,  समंदर कच्ची-पक्की सड़को पर ,  पगडंडियों पर पार कर बीहड़ गाँव और नवे शहर भागती रही वो ,  क्योंकि थकना उसने सीखा न था  | थम जा गुड़िया ,  थोड़ा सांस ले ले भाग मत इतना कि ज़िन्दगी बिछड़ जाए रुक के बैठ ,  भागने के सिवा बहुत कुछ है छोटे-छोटे पल जी ले ,  धीमे से गुज़र जाएंगे  | गुड़िया जिद्दी थी ,  पर नादान न थी ,  रुकना चाहती थी पर गुज़रे हुए समय ने रुकने न दिया आदत इतनी हो गयी थी भागने की कि रुक न पाई ,  बस भागती गयी...

मिट्टी और मैं

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बचपन में मैं भी खेली थी रेत और मिट्टी मेरी प्यारी सहेली थी हाथ-पाँव मिट्टी में भर बीमार होने से थी बेफिक्र माँ की डांट सुनती थी पर फिर भी मिट्टी में हाथ डुबोए अपनी कल्पना के ताने-बाने बुनती थी वोही मेरी बचपन की सहेली थी मैं माटी से खूब खेली थी  | अजब ये पढ़ाई होती है क्या-क्या मैंने सीख लिया बड़े होते-होते मिट्टी से डर मन में पैदा हो गया गंदे होते हाथ मिट्टी से होते बीमार मिट्टी से कीटाणु होते हैं मिट्टी में ये छोटे से दिमाग में भर गया  | डरती ,  हाथ धोती ,  छी-छी करती मिटटी से मैं दूर हुई जीवन के कुछ ऐसे भी वर्ष रहे जब न मेरे हाथों ,  न पैरों को सूखी या गीली मिट्टी स्पर्श हुई फिर भी खुशबु सूंघती थी वो पहली बारिश की जब मिट्टी पर पड़ती थी एक अजीब सी खुद लगती थी पर फिर भी कुछ न करती थी  | फिर एक दिन माटी को स्पर्श किया लगा बहुत समय बीत गया वो पल आज भी याद है उस पल में बहुत कुछ याद आ गया पर फिर वही ज़िन्दगी पाँव में चप्पल हरदम हाथों में साबुन और सैनीटाईज़र की परतें मिट्टी से फिर नाता टूट गया  | पर अजब जीवन का खेल है